साँझ का इश्क
दिवाली के आठ ही दिन रह गए थे।अब की बार शहर में वो पहले सी गहमा गहमी या भीड़ नहीं थी,पर लोग घरों में भी नहीं दुबके थे।
कोरोना नाम की बीमारी ने जैसे हर चीज पर विराम लगा दिया था। यहाँ पहले इस चौक पर शाम के समय गरीबों को खाना बाटने वाले आते थे, पर अब क ई दिनों से ऐसा कम ही होता था।कोई खाना बाटने भी आता था तो पैकिटों मे डला खाना फटाफट पकड़ा कर चला जाता था।
खाना बाँटने के लिए लोग आ रहे थे। भिखारियों की कतार में बैठे सूरजमल का ध्यान खाने की और कम इ़धर उधर देखने में ज्यादा था।मानों किसी की प्रतीक्षा कर रहा हो। उसने खाने का पैकेट पकड़ लिया और फिर इधर उधर देखने लगा।तभी एक दस बारह साल की बच्ची चिंकी उधर आई थी।
चाचा राम राम।
अरे चिंकिंया कैसी है बिटिया?
ठीक हूँ चाचा,तुम्हें खाना मिल गया।
ले खा ले बिटिया, सूरजमल ने अपना पैकेट उधर कर दिया था।
नहीं चाचा मेरे पास दो हैं, तूं खा ले।
अरे चिंकी वो औरत जो सफेद साड़ी पहन कर तेरी माई के साथ आती थी,वो नहीं दिख रही कहीं चली गई क्या?
वो राधा बुआ?
हाँ वही।
चाचा उसको बहुत बुखार हो गया था,अस्पताल वाले पकड़ कर ले गए हैं। चार दिन हो गए।
सूरजमल ने अपने खाने के पैकेट को झोले में डाल लिया और गमछा मुँह पर लपेट कर अस्पताल की तरफ चल पड़ा था। कैसे ढूंढ पाऊँगा, कौन जाने देगा, मुझे वहाँ तक, क्यों जा रहा हूँ मै?
तभी एक महिला जो कि अस्पताल के पास ही खड़ी थी,पढ़ी लिखी लग रही थी। उस को हाथ जोड़ कर राम राम बोल कर सूरजमल ने अपनी समस्या समझाई कि उसकी कोई रिशतेदार महिला को अस्पताल वाले बुखार में पकड़ कर ले आये हैं,कोरोना के चलते, उस को कैसे और कहाँ ढूंढ सकता हूँ?
अरे चाचा , वो पिछवाड़े वाली गेलरी में तुम जैसे बहुत लोग भरे पड़े हैं उन में से देख लो ,इन सब का रिपोर्ट अभी बाकी था।
सूरजमल को लगा कि ये महिला इधर ही काम करती है शायद?
आप इस को वहाँ से ले जाने में मेरी मद़द कर देंगी।
तुम्हें रोका किसने है चाचा, जाकर ढूंढ लो अपनी रिश्तेदार को और ले जाओ।
सूरजमल डरता डरता अंदर गेलरी की तरफ़ बढ गया था।सामने ही राधा अधलेटी सी बैठी थी नाक और मुँह को लपेटे। सूरजमल के एक इशारे से ही वो उस की तरफ़ आ ग ई थी।
तुम को भी कोरोना है क्या? राधा ने पूछा था।
किसी को भी नहीं है, चल यहाँ से बाहर आ जा।
ये मुझे फिर पकड़ लायेंगे।
त़ू जल्दी निकल यहाँ से।
तभी एक नर्स ने रोका था उसे, ऐ कहाँ लेकर जा रहा है इसको चाचा।
घरवाली है बेटा मेरी।
तुम और तुम्हारे रिश्ते ,दो दिन पहले कहाँ मर गया था,जब ये सड़क पर पड़ी थी बुखार मेंं।
गलती हो ग ई बेटा।
नाम क्या है तेरा?
राधा।
नर्स ने अपने रजिस्टर मे कुछ टटोला और बोली ठीक है ले जा, इसको कुछ नहीं है।एक पैकेट में गोलियां पकड़ा दी थी।
बुखार हो तो दे देना।
राधा को साथ लिए साथ लिए सूरजमल बाहर निकल आया था।
बाहर निकल कर राधा ज़मीन पर ही एक तरफ बैठ ग ई थी।
क्या हुआ, रूक क्यों ग ई।
चला ही नहीं जाता, बहुत बुखार है। तूं जा वरना तेरे को भी कोई बीमारी लग जायेगी।
त़ू यहीं बैठ मैं अभी आता हूँ। पास की दवाईयों की दुकान से वो बढि़या वाली दवाई पैसे देकर ले आया था।
ले ये दवाई खा ले , झोले से एक गिलास निकाल कर खरीदी हुई पानी की बोतल से भर के दिया था उसने।
तूं जाता क्यों नहीं मरने दे मुझे, कभी घरवाली बता रहा है, कभी दवाई ला रहा है।क्या चाहिए तुझे इस बुढापे में मुझसे।
कुछ नहीं चाहिए, राधा, एक बात कहूँगा, पर पहले दवाई खा ले और ये रोटी खा ले.
शरीर की टूटन ने दवाई,और पेट की आग ने रोटी खाने को मजबूर कर दिया था राधा को।
राधा मैं कोई जन्म जात भिखारी नहीं हूँ, मेरा अपना एक छोटा सा घर है अल्मोड़ा के पास।थोड़ी सी जमीन का टुकड़ा भी है जिसे मेरे रिश्तेदार बोते हैं, मेरे जाने पर कुछ पैसा भी देते है।
फिर तूं भीख क्यों माँगता है?
मैं चार सालों से इधर आ गया था।कुछ काम मिला नहीं, या यूं कहो कर नहीं पाया, आगे पीछे कोई है नहीं, बस माँग कर खा लेता हूँऔर इधर पड़ा रहता हूँ। पिछले महीने से तुम्हें देख कर पता नहीं क्यों फिर से काम करने की और घर जाने की इच्छा हुई है।अगर तुम्हें कोई समस्या न हो तो तुम चलो मेरे साथ मेरे घर में ।
मेरे बारे में जानते कितना हो? जो मुझ जैसी को घर ले जाने के लिए कह रहे हो।
मुझे कुछ नह़ी जानना, बस तुम्हें कोई दिक्कत न हो तो हाँ कर दो, ताकि मै आगे की सोचूं।
कुछ देर बाद चुप रहने के बाद, राधा बोली, तेरी बिरादरी वाले क्या कहेंगे?
तूं ये सब छोड़ तूं अपनी बता?
सूरजमल ने अलमोडा की टिकट करवा ली थी,अपने घर की चाबी बुखार से तपती राधा की झोली में डाल उसे लेकर चल पड़ा था। रास्ते में दवाईऔर चाय देता रहा था उसे। बुखार में काफी सुधार लग रहा था।
अगले दिन साँझ को दोनो अपने घर पहँच ग ए थे।
राधा तूं ही घर खोल ,चाबी से ताला खोल कर दोनों अंदर चले गए थे।
तभी एक औरत घूंघट निकाले आई थी,"चाचा रोटी हो रखी हैं तुम्हारी भी ले आऊँ क्या?अबकि तो बहुत दिनन में आये"उस की आँखें अंदर अंधेरे को चीरती जैसे कुछ ढूंढ रही थी।
बेटी तुम्हारी चाची भी है संग में,इनकी भी रोटी ले आना और एक तेल वाला दीया भी ।कल सबेरे मैं सब जुगाड़ कर लूंगा।
सही है चाचा अभी लाती हूँ।चाची को घर ले जाऊँ क्या?
नहीं इन को बुखार आ रखा है।
ठीक है ठीक हे मैं सब यहीं ले आती हूँ।
इस दिवाली बहुत काम है राधा के पास बीमार और कमजोर होने के बाद भी वो अपने बुढापे के मलिन अंधेरे को सूरजमल के स्नेह रूपी दीये से दूर भगाना चाहती है।
कहानी, सांझ का इश्क
लेखिका, ललिता विम्मी
भिवानी, हरियाणा
kashish
07-Feb-2023 08:43 PM
nice
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Babita patel
04-Feb-2023 05:13 PM
very nice
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Niraj Pandey
09-Oct-2021 05:13 PM
बेहतरीन
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